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Full Story

जीजाजी यानी मेरी मौसेरी बहन कृष्णा के पति का फोन था, “क्या बात है सालीजी, आजकल याद ही नहीं करतीं? तुम्हारी दीदी कुछ बीमार चल रही है, बहुत याद कर रही है तुम्हें. थोड़ा समय निकालकर मिलने आ जाओगी तो उसे अच्छा लगेगा.”

“क्या हो गया दीदी को? कोई सीरियस बात तो नहीं…” अनायास मेरी आवाज़ में गंभीरता आ गई थी.

“नहीं, ऐसी भी कोई सीरियस बात नहीं है, तुम परेशान मत हो, लेकिन आ जाओगी तो उसे ख़ुशी होगी.”

“ठीक है जीजाजी, मैं जल्दी ही आने का प्रोग्राम बनाऊंगी.” कहकर मैंने फ़ोन रख दिया. सोचने लगी, कितने दिन हो गए कृष्णा दीदी से मिले. हां, लगभग दो साल का व़क़्त बीत चुका है. यह तो विज्ञान की मेहरबानी है कि फ़ोन, मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट पर चैटिंग, वेब कैम से प्रत्यक्ष बातचीत हो जाती है. दीदी और मेरे बीच भी फ़ोन पर महीने में एक-दो बार तो अवश्य बातचीत होती थी. अभी कुछ दिन पहले फ़ोन लगाया था, पर दीदी से बात नहीं हो सकी थी. जीजाजी ने ही फ़ोन उठाया था और कहा था, “तुम्हारी दीदी सोई हुई हैं. आजकल थोड़ा-सा काम करने पर ही थक जाती हैं.”

“तबियत तो ठीक है न? डॉक्टर को दिखाया…?” मेरी आवाज़ में चिंता महसूस कर वे बोले, “पूरा चेकअप कराया है, चिंता की कोई बात नहीं.” फिर मैं भी अपनी पारिवारिक और सामाजिक व्यस्तताओं में खो गई और दीदी का भी फ़ोन नहीं आया.

बेशक जीजाजी ने दीदी के स्वास्थ्य के बारे में चिंता जैसी बात से इंकार किया था, लेकिन मुझे अंदर से महसूस हो रहा था कि दीदी के साथ ज़रूर कुछ प्रॉब्लम है, वरना वे ख़ुद फ़ोन पर बात करतीं. उनसे मिलने की इच्छा बलवती होने लगी. दो वर्ष में तो मनुष्य के जीवन में कितना कुछ बदल जाता है. पता नहीं, दीदी के साथ सब ठीक चल रहा है या नहीं?

कृष्णा दीदी और मेरी उम्र में चार-पांच वर्ष का अंतर था. एक ही शहर और एक ही मोहल्ले में रहने के कारण हमारा रोज़ ही मेल-मिलाप होता था. हम दोनों एक ही स्कूल में पढ़ती थीं. स्कूल घर से एक किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर था, लेकिन हम दोनों पैदल ही बड़ी सहजता से जाती-आती थीं. मोहल्ले की और दो-तीन लड़कियां भी हमारे साथ चल पड़तीं. बातें करते, गप्पे लड़ाते दूरी का एहसास ही नहीं होता था. शाम को हम सब मोहल्ले के सार्वजनिक बगीचे में इकट्ठे होते. कुछ देर खेलते, कुछ क़िस्से-कहानियां सुनते-सुनाते और शाम ढलने से पहले अपने-अपने घर लौट जाते. कितने ही वर्षों तक हमारी यही दिनचर्या रही. चूंकि हमारे घर फ़िल्में, नाटक आदि देखने पर पाबंदी थी, अतः दीदी जब भी कोई फ़िल्म देखकर आती तो उसकी कहानी हमें बगीचे में बैठकर सुनाती. हम सब बड़े चाव से सुनते. ऐसा महसूस होता, जैसे वास्तव में हम फ़िल्म ही देख रहे हों. दीदी की हायर सेकेंडरी की स्कूली शिक्षा पूरी हुई तो उनकी पढ़ाई बंद करा दी गई. घरेलू काम, जैसे- खाना बनाना, सिलाई-बुनाई उन्हें सिखाया जाने लगा, क्योंकि साल-दो साल में उनकी शादी होनी थी. दीदी काफ़ी सुंदर थीं- गोरा रंग, ऊंची क़द-काठी, आकर्षक नैन-ऩक़्श. उन्हें तो कोई भी पहली नज़र में ही पसंद कर लेता. मौसी का कहना था- स़िर्फ सूरत से कुछ नहीं होता, सीरत ज़रूरी है. लड़की में सभी गुण होने चाहिए.

अट्ठारह वर्ष की होते ही कृष्णा दीदी की शादी तय हो गई. उनके पति पढ़े-लिखे, कॉलेज में प्राध्यापक थे. उन दिनों लड़के-लड़की के माता-पिता ही शादी तय करते थे. लड़के-लड़की का आपस में देखना, मिलना, बातचीत करने जैसी औपचारिकताओं का महत्व नहीं होता था. अगर माता-पिता को रिश्ता पसंद आ गया तो लड़के-लड़की को केवल सूचित किया जाता था. उनकी राय जानने की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी. शादी के बाद ही दीदी व जीजाजी ने एक-दूसरे को देखा था. जो भी लोग शादी में शामिल थे, सभी ने दबी ज़ुबान से जीजाजी के व्यक्तित्व को लेकर अलग-अलग प्रतिक्रिया की थी. जीजाजी का व्यक्तित्व दीदी के सामने एकदम बौना था. गहरा रंग, छोटा क़द और कुछ भारी शरीर. कुछ महिलाओं ने तो दबी ज़ुबान में यह भी कह दिया था, “कृष्णा के लिए यही लड़का इनको नज़र आया? चांद में ग्रहण लग गया-सा प्रतीत होता है.” कुछेक इससे भी आगे निकल गईं, “अपनी कृष्णा की तो छूने भर से मैली हो जानेवाली रंगत है. इसके साथ रहकर तो वह भी काली हो जाएगी. संगत का असर तो होता ही है न…” कनखियों से इशारेबाज़ी, हंसी-ठट्ठा होता रहा, लेकिन इन सबसे बेख़बर मौसा-मौसी बड़े चाव, उत्साह, उमंग से शादी की रस्मों को पूरा करने में व्यस्त रहे.

शादी के बाद जब-जब दीदी मायके आतीं, उनकी खिली-खिली रंगत और दमकता चेहरा उनकी ख़ुशहाल ज़िंदगी के सबूत पेश करते. पांच वर्षों में वे दो बच्चों की मां बन अपनी घर-गृहस्थी में पूरी तरह रम गई थीं. अपने सुखी वैवाहिक जीवन के बारे में बताते हुए वे हमेशा कहतीं, “मैं बड़ी भाग्यशाली हूं, जो मुझे ऐसा पति मिला है, जिसमें सभी मानवीय गुण हैं. मुझे उनसे प्रेम, अपनापन, सहयोग, प्रेरणा सभी कुछ मिला है.”

जीवन सहजता से गुज़रता रहा. शादी के पश्‍चात् मैं भी दूसरे शहर चली गई, लेकिन हमारे बीच पत्र-व्यवहार और फ़ोन द्वारा संपर्क बना रहा. पारिवारिक कार्यक्रमों में साल-दो साल में मिलना हो ही जाता था. दीदी के साथ जीजाजी अक्सर कार्यक्रमों में शामिल होते थे. वहां उन दोनों का प्रेम चर्चा का विषय बन जाता था. जीजाजी जब तैयार होते तो दीदी के सम्मुख खड़े हो बड़े प्यार से पूछते, “कृष्णा, देखो ठीक लग रहा हूं न?” हम सभी मुस्कुरा उठते. दीदी भी ठीक उसी अंदाज़ में जब पूछतीं, “सुनिए, ठीक लग रही हूं?” तो जीजाजी कहते, “ठीक नहीं, बेहद ख़ूबसूरत लग रही हो. काला टीका भी लगा लेना, कहीं किसी की नज़र न लग जाए.”

मौसी बताती थीं कि जब कृष्णा दीदी मायके आती थीं तो जीजाजी की लिखी एक चिट्ठी रोज़ डाकिया लेकर आता. छोटे भाई-बहन उसे छेड़ते थे कि इतना भी क्या दीवानापन है, रोज़ चिट्ठी लिखने बैठ जाते हैं. उनसे कहो थोड़ा सब्र रखें. पंद्रह-बीस दिन इतने लंबे तो नहीं होते… दीदी केवल मुस्कुरा देतीं, लेकिन उनके चेहरे की लालिमा और ख़ुशी देख सभी संतुष्ट होते कि बेटी अपने घर सुखी है.

समय का चक्र अपनी गति से चलता रहा. दीदी के बच्चे पढ़-लिखकर उच्च शिक्षित हो गए. बेटे की एक अच्छी कंपनी में नौकरी लग गई, लेकिन दूसरे शहर में. इधर बेटी के लिए अच्छा वर मिल गया तो उसकी भी आनन-फानन में शादी हो गई. अब दीदी-जीजाजी अकेले रह गए थे. कई बार उनका फ़ोन आता, “क्या कर रही हो? अब तो तुम्हारे दोनों बेटे भी बड़े हो गए हैं. कॉलेज जा रहे हैं. आ जाओ न कुछ दिनों के लिए, साथ रहेंगे.” पति व बच्चों की तरफ़ से हरी झंडी मिलने पर मैं सप्ताह भर के लिए कृष्णा दीदी के पास चली गई.

कृष्णा दीदी कभी चाय नहीं पीती थीं. यहां मैंने देखा, सवेरे ट्रे में तीन प्याले चाय व बिस्किट रखकर वे बोलीं, “अनु, चलो बेड टी ले लें.”

मैंने हैरानी से पूछा, “दीदी, आप तो चाय के नाम से ही चिढ़ती थीं. ज़िंदगी में कभी चाय पीते आपको नहीं देखा. यह करिश्मा कब से हो गया?”

वे मुस्कुराते हुए बोलीं, “जब ज़िंदगी में कोई टूटकर चाहनेवाला मिल जाए, जिसे आपसे शारीरिक नहीं आत्मिक प्रेम हो, तो जीवन में करिश्मे होते ही रहते हैं. मैं तो सिर्फ़ चाय पीने लगी हूं, जबकि ये तो मेरी पसंद की फिल्में, नाटक, प्रदर्शनी तक देखने चल पड़ते हैं. इनको ऐसा कोई शौक ही नहीं था. क्रिकेट मैच से मेरा कभी वास्ता नहीं रहा, लेकिन अब इनके साथ बैठकर टीवी पर पूरा मैच शौक से देखती हूं. इन्हें बहुत पसंद है न!” मैं मंत्रमुग्ध-सी उनकी बातें सुनती रही.

“जीवनसाथी का अर्थ ही होता है- जीवन साथ-साथ जीना. जिनमें परस्पर प्यार, विश्‍वास, समर्पण, आदर, अपनत्व होगा, उन्हीं का जीवन सहज होगा, उमंग-उत्साह से भरा होगा, वरना दो ध्रुवों की तरह हो जाएगा, जो आपस में कभी नहीं मिलते. अब तक बिताई अपनी ज़िंदगी से मैंने यही अनुभव किया है. अगर सच्चे दिल व पूरे निष्ठा से प्रयास किया जाए तो हम जीवन

को बड़ी ख़ूबसूरती से अपने ढंग से जी सकते हैं.”

रात के खाने के बाद हम दोनों बैठ पुरानी स्मृतियों को यादकर गपशप में मशगूल थीं. ठंड के शुरुआती दिन थे. हल्की ठंडी हवा खिड़की के रास्ते बीच-बीच में आकर ख़ुशनुमा एहसास दिला रही थी. दीदी शायद थक गई थीं. कुछ देर बाद ही उनींदी-सी हालत में बोलीं, “मुझे नींद आ रही है. तुम भी सो जाओ, बाकी बातें कल करेंगे?” मुझे अभी नींद नहीं आ रही थी. अतः क़िताब पढ़ने लगी. कुछ देर बाद जीजाजी वहां आए. दीदी को सोते हुए देखा तो आलमारी में से कंबल निकालकर उन पर ओढ़ाते हुए बोले, “जब से कृष्णा को थायरॉइड की बीमारी हुई है, इसे ठंडी अधिक लगती है, पर अपना ख़याल ही नहीं रखती. ऐसे ही सो गई, लेकिन मेरे नाश्ते से लेकर खाने, पहनने-ओढ़ने, दवा आदि सब का ख़याल इसे रहता है. हर कार्य समय से करती है. सचमुच इसके बगैर तो मैं अधूरा हूं.”

अगले दिन दीदी उठीं तो बोलीं, “रात को नींद तो अच्छी आई, फिर भी न जाने क्यों सिरदर्द हो रहा है.” जीजाजी फौरन बोले, “तुम आराम करो. मैं चाय बना लेता हूं.” मैं जब चाय बनाने के ख़याल से उठने लगी तो उन्होंने यह कहकर मुझे बैठा दिया कि सालीजी कभी हमारे हाथ की चाय पीकर भी देखिए. ट्रे में चाय के साथ मठरी व बिस्किट लेकर वे कुछ ही देर में प्रकट हो गए. चाय वाकई बहुत अच्छी बनी थी. मैंने कहा, “दीदी, सचमुच तुम ख़ुशक़िस्मत हो, जिसे जीजाजी जैसा जीवनसाथी मिला है.” दीदी स्वीकृति में मुस्कुरा दीं. उनकी शादी के बाद से जीजाजी का दीदी के प्रति जो निर्मल, निश्छल प्रेम-स्नेह देखा था, वह ज्यों का त्यों बरक़रार था.

अब दो वर्षों के बाद दीदी से मिलने गई थी. ताज्जुब हुआ कि इस बार वे पहले की तरह चुस्त, ख़ुश व उत्साहित नहीं हैं. चेहरे से ही स्पष्ट हो रहा था कुछ तनाव में हैं. आख़िर जीजाजी ने ही बताया कि उनके बेटे ने अपनी सहकर्मी से शादी कर ली है और वे विदेश चले गए हैं. इस तनाव को लेकर दीदी अंदर ही अंदर घुल रही थीं. मैं उन्हें समझाती रही कि बदलते व़क़्त के साथ अब इन बातों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए. अब बच्चे अपनी मर्ज़ी से जीवन जीना चाहते हैं. हमें ही समझौतावादी रुख अपनाना चाहिए, लेकिन दीदी सहज नहीं हो पा रही थीं. तीन-चार दिन रहकर मैं लौट आई.

अगले वर्ष हमारे बड़े बेटे को विदेश में एक अंतरराष्ट्रीय कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई. कुछ समय बाद उसने हमें वहां बुलाया. लगभग दो माह घूम-फिरकर हम वापस लौटे तो मौसी की बहू से ख़बर मिली कि कृष्णा दीदी नहीं रहीं. पिछले माह उन्हें ज़बर्दस्त दिल का दौरा पड़ा था. अस्पताल में चार-पांच दिन मौत से लड़ने के बाद वे हारकर चल बसी थीं. सुनकर गहरा सदमा पहुंचा था. जीजाजी की क्या मनोदशा होगी, यह सोचकर ही मन भारी होने लगा. जब हम उन्हें मिलने गए तो वे उदास व थके से लग रहे थे. मेरी रुलाई फूट पड़ी. “बेटे के विवाह को लेकर दीदी ने इतना तनाव पाल लिया कि ख़ुद ही बीमारी हो गईं.” जीजाजी ने धीरे से कहा, “कृष्णा को ब्रेन कैंसर हो गया था.

इस बात का पता काफ़ी देर से चला, तब तक वह लाइलाज हो चुका था. उसे जब इस बात का पता चला तो वह काफ़ी घबरा गई थी. अपनी बीमारी की चिंता की बजाय उसे यह चिंता थी कि उसके जाने के बाद मेरा क्या होगा? कैसे अकेला रह पाऊंगा? अंतिम दिनों में तो वह मुझे समझाती रहती थी, मैं स्वयं को किस प्रकार व्यस्त रख सकता हूं. मुझे अपने स्वास्थ्य का किस प्रकार ख़याल रखना है. मेरी दवाइयां कहां रखी हैं? जरूरी काग़ज़ात, जेवर व अन्य क़ीमती सामान कहां रखे हैं? इसकी जानकारी देती रहती थी. इसी चिंता में उसे ज़बर्दस्त दिल का दौरा पड़ा और वो मुझे छोड़कर चली गई. सचमुच मैं बहुत अकेला हो गया हूं…”

सहज होने पर जीजाजी बोले, “मैंने कृष्णा को लेकर कुछ कविताएं लिखी हैं, सुनोगी?” मेरी स्वीकृति पर वे उठे, भीतर गए. एक डायरी हाथ में लिए लौटे. दीदी के वियोग में लिखी विरह कविता में उन्होंने दीदी के लिए नूरी, फूल, चांदनी जैसी कई उपमाएं दी हुई थीं. दीदी की, उनके प्यार-समर्पण की ख़ूब प्रशंसा की थी. उत्सुकता से मैंने पूछ लिया, “आप पहले भी कविता लिखते थे या…”

वे बीच में ही बोल पड़े, “शादी के बाद कृष्णा ने इतना प्यार दिया कि मैं तुकबंदी करने लगा. उसे लिखे हर पत्र में मैं कुछ पंक्तियां ज़रूर लिखता था. कविता बने या शेर- इससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं होता था. मुख्य बात होती थी अपनी भावनाओं को उस तक पहुंचाना.”

मैंने उससे एक बार कहा था कि मैं जो भी पत्र लिखता हूं, उन्हें सहेजकर रखना. मुझे बड़ी ख़ुशी होगी, क्योंकि उनमें मैं अपने भीतर का पूरा प्यार, स्नेह, आदर, समर्पण सभी कुछ डाल देता हूं. तुम्हें हैरानी होगी, हृदयाघात होने से एक दिन पहले उसने एक रेशमी बैग में मेरी लिखी सारी चिट्ठयां मुझे सौंपते हुए कहा था, “यह आपकी अमानत आपको सौंप रही हूं, पता नहीं कब सांसों की डोर टूट जाए. इसे संभाल लेना, आपसे किया वादा पूरा कर दिया है.” जीजाजी ने वे पत्र भी हमें दिखाए, जो पैंतीस वर्ष पहले उन्होंने दीदी कोbलिखे थे.

कमरे में दीदी की मुस्कुराती बड़ी-सी फ़ोटो लगी हुई थी. जीजाजी उसे बड़े प्यार से निहारते हुए बोले, “अस्पताल जाने से दो-चार दिन पहले यह फ़ोटो मैंने ही खींची थी. उस दिन कृष्णा मुझे बेपनाह ख़ूबसूरत लग रही थी. मैंने जब फ़ोटो खींचने की बात की तो फ़ौरन तैयार हो गई. फिर बोली, “इस फ़ोटो पर हार मत चढ़ाना, क्योंकि हार तो उसे चढ़ाया जाता है, जो यह संसार छोड़कर चला जाता है. मैं तो हमेशा आपके संग ही रहूंगी आपकी यादों में, सपनों में, बातों में… आपने इतना प्रेम जो दिया है, क्या मैं आपको अकेला छोड़ सकती हूं…?”

जीजाजी के चेहरे पर कुछ देर पहले जो उदासी, सूनापन था उसके स्थान पर अब वे सहज, स्थिर और शांत नज़र आने लगे. कुछ देर की चुप्पी के उपरांत वे बोले, “पहले मुझे लगता था कि कृष्णा के बिना मैं जी नहीं पाऊंगा, लेकिन अब महसूस होता है कि वह तो मेरे साथ ही है. उसकी मधुर स्मृतियां मेरे हर क्रियाकलाप में, मेरे आसपास हमेशा रहती हैं. वह केवल शरीर छोड़कर गई है, रूहानी रूप से वह सदा मेरे साथ रहती है. यह फ़ोटो देखो, कैसे मुस्कुरा रही है. उसके आत्मिक प्रेम के सहारे अपना शेष जीवन मैं सहजता से जी लूंगा…”

मैं सोचने लगी, आज जब संसार में प्रेम जैसा पवित्र शब्द एक व्यापार बन कर रह गया है, वहां दीदी-जीजाजी का पावन आत्मिक प्रेम कितना शक्तिशाली है, जो जीवन के बाद भी उतना ही महत्त्व व प्रभाव रखता है. दिल को छूता है उनका यह रूहानी रिश्ता. उनके निश्छल, निर्मल व पावन प्रेम के प्रति मन श्रद्धा से भर उठा. -नरेंद्र कौर

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